9/02/2008

इनसे मिलिए ( नख शिख वर्णन ) : दुष्यंत कुमार

पाँवों से सर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढे हुए नाखून
कुछ टेढ़े- मेढ़े बैंगे दागिल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव
टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिंडलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस
कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़
गट्टों -सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण
छाती के नाम महज़ हड्डी दस बीस
जिस पर गिन-चुनकर बाल खड़े इक्कीस
पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरुद
चुकता करते-करते जीवन का सूद
बाँहें ढीली-ढाली ज्यों सूखी डाल
अंगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल
छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हर वक्त पसीने का बदबू का संग
पिचकी अमियों-से गाल लटे-से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान
माथे पर चिंताओं का एक समूह
भौहों पर बैठी हरदम यम की रूह
तिनकों-से उड़ते रहनें वाले बाल
विद्युत् परिचालित मखनातीसी चाल
बैठे तो फिर घंटे बैठ जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत

कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यंत कुमार |

रचनाकाल : १९५५-५६, 'सूर्य का स्वागत 'से
दुष्यंत कुमार रचनावली ( भाग : एक )

5/05/2008

शब्दों से कभी कभी काम नहीं चलता : त्रिलोचन

शब्दों से कभी कभी काम नहीं चलता

जीवन को देखा है
यहाँ कुछ और
वहाँ कुछ और
इसी तरह यहाँ-वहाँ
हरदम कुछ और
कोई एक ढ़ंग सदा काम नहीं करता

तुम को भी चाहूँ तो
छूकर तरंग
पकड़ रखूँ संग
कितने दिन कहाँ-कहाँ
रख लूँगा रंग

अपना भी मनचाहा रूप नहीं बनता ।
( ’ताप के ताये हुए दिन’ से)

2/23/2008

प्रपात के प्रति : निराला


अंचल के चंचल क्षुद्र प्रपात !
मचलते हुए निकल आते हो;
उज्जवल! घन-वन-अंधकार के साथ
खेलते हो क्यों? क्या पाते हो ?
अंधकार पर इतना प्यार,
क्या जाने यह बालक का अविचार
बुद्ध का या कि साम्य-व्यवहार !
तुम्हारा करता है गतिरोध
पिता का कोई दूत अबोध-
किसी पत्थर से टकराते हो
फिरकर ज़रा ठहर जाते हो;
उसे जब लेते हो पहचान-
समझ जाते हो उस जड़ का सारा अज्ञान,
फूट पड़ती है ओंठों पर तब मृदु मुस्कान;
बस अजान की ओर इशारा करके चल देते हो,
भर जाते हो उसके अन्तर में तुम अपनी तान

2/15/2008

अलविदा के बाद : रवीन्द्र भट्ठल

तेरे जाने के पहले, सूरज उदास भी होता था
सूरज अस्त भी होता था
हर रोज़ रात सरों पर छत्र करती थी
सितारों की फुलकारी,
हवा गाती थी
धूप नृत्य करती थी.
अँधेरा अपने लम्बे सुर में मस्त था
हँसी की कूल थी, बोलों की बबूल थी
मुकद्दरों का साथ था,
चलनें की ज़ंजीर थी
उम्र बेफ़िक्र विचारों की फ़कीर थी

तेरे जाने से पहले ,दूध जैसा,
मोह जैसा सब कुछ था
और अलविदा के बाद............

{ओ-पंखुरी ! पंजाबी की श्रेष्ट कविताओं, से }

2/08/2008

प्रतीक्षा-गीत : अज्ञेय


हर किसी के भीतर
एक गीत सोता है
जो इसी का प्रतीक्षमान होता है
कि कोई उसे छू कर जगा दे
जमी परतें पिघला दे
और एक धार बहा दे

पर मेरे प्रतीक्षित मीत
प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत
जिसे मैने बार बार जाग कर गाया है
जब-जब तुम ने मुझे जगाया है

उसी को तो आज भी गाता हूँ
क्यों कि चौंक- चौंक कर रोज़
तुम्हें नया पहचानता हूँ-
यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ

( सदानीरा , से )

2/01/2008

सायंकाल : रधुवीर सहाय

"...बहरहाल, इस तरह की कोशिशें विचार वस्तु के दिल और दिमाग़ पर उतरनें के तरीक़े पर निर्भर रहेंगी और ज़रूरी है कि हम अपनी अनुभूति को उसी प्रकार सुधारें, ताकि कविता भी वैसी ही जानदार हो सके जैसी कि वे वास्तविकताएँ, जिन से हम कविता की प्रेरणा लेते हैं। विचार-वस्तु का कविता में खू़न की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है; और यह तभी सम्भव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों ।"
: रधुवीर सहाय :

खिंचा चला जाता है दिन का सोने का रथ
ऊँची-नीची भूमि पार कर
अब दिन डूब रहा है जैसे
कोई अपनी बीती बातें भुला रहा हो,
परती पर की दूब घास में अरज-अरझ कर
उजले-उजले अनबोये खेतों से हो कर
धूप अनमनी-सी वापस लौटी जाती है।

दूर क्षितिज पर महुओं की दीवार खड़ी है
जिस पर चढ़ कर सूरज का शैतान छोकरा
झाँक रहा है
चौडे़ चिकने पत्तों की ललछौर फुनगियों को सरका कर
नीड़ों में फिर लौटीं मँडराती पिड़कुलियाँ
निकल-निकल जाती हैं उस के चपल करों से
अब छायाएँ दौड़ गयी हैं लम्बी-लम्बी
फैल गया गोरी धरती पर झिंझरा-झिंझरा
चाँदी के काँटों वाला बाँका बबूल
निर्जल मेघों की हलकी छायाओं-जैसा ।
है खडा़ हुआ तन का खजूर
छाया का बोझा फेंक दूर निज मस्तक से
हारों से लौट रहे हैं जन
फैले-फैले मैदानों में बहने वाली
लग रहीं हवाएँ उन के चौडे़ सीनों से
उन के कंधों की लठिया जैसे सोने की
आगे-आगे गोरू जिन की चिकनी पीठों
पर साँझ बिछल कर चमक रही ।
लो होता श्रम का समय शेष
अब शीतल जल की चिन्ता में
लगती बहुओं की भीड़ कुँए पर
मँजी गगरियों पर से किरणें घूम-घूम
छिपती जातीं पनिहारिन के साँवल हाथों की चूड़ियों में
धीरे-धीरे झुकता जाता है शरमाये नयनों-सा दिन
छाया की पलकों के नीचे
लो डूब गया आलोक धवल
अम्बर में सातों रंग छोड़
वे रुके हुए,ऊदे मेघों की बाँहों में
हैं श्याम धरा,रंगीन गगन
हो गयी साँझ, सो रहा सत्य, जग रहे सपन।

’दूसरा सप्तक’ से

1/15/2008

उदास वक़्तों में : नवतेज भारती

उदास वक़्तों में भी, जुगनू लौ करते हैं
सितारे टिमटिमाते हैं
और कवि कविता लिखते हैं

उदास वक़्तों में भी
घास के तृण उगते हैं
पक्षी गाते और फूल खिलते हैं

उदास समय में भी
लोग सपने लेते हैं
दरिया बहते हैं और सूर्य उदय होता है


’ओ पंखुरी’ से