12/26/2007

रुबाई : शमशेरबहादुर सिंह

हम अपने ख़्याल को सनम समझे थे
अपने को ख़्याल से भी कम समझे थे
’होना था’- समझना न था कुछ भी ’शमशेर’
होना भी कहाँ था वो जो हम समझे थे।

’दूसरा सप्तक’ से

11/30/2007

सूखे पीले पत्तों ने कहा - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

तेज़ी से जाते हुई कार के पीछे
पथ पर गिरे पड़े
निर्जीव सूखे पीले पत्तों ने भी
कुछ दूर दौड़ कर गर्व से कहा----
’हम में भी गति है,
सुनो, हम में भी जीवन है,
रुको-रुको हम भी
साथ चलते हैं
हम भी प्रगतिशील हैं।’
लेकिन उन से कौन कहे-
प्रगति, पिछलग्गूपन नहीं है
और जीवन, आगे बढ़ने के लिए
दूसरों का मुँह नहीं ताकता ।

9/14/2007

जयशंकर प्रसाद

सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है

समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है

सब जीवन बीता जाता है.

( प्रतिनिधि कविताएँ , से)

8/28/2007

पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस : सुमित्रानंदन पंत

चिर प्रणम्य यह पुष्य अहन, जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन !
नव भारत, फिर चीर युगों का तिमिर-आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन !
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़-बंधन !

शान्त हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण,
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण !
आम्र-मौर लाओ हे ,कदली स्तम्भ बनाओ,
पावन गंगा जल भर के बंदनवार बँधाओ ,
जय भारत गाओ, स्वतन्त्र भारत गाओ !
उन्नत लगता चन्द्र कला स्मित आज हिमाँचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शम्भु तपोज्वल !
लहर-लहर पर इन्द्रधनुष ध्वज फहरा चंचल
जय निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल !


धन्य आज का मुक्ति-दिवस गाओ जन-मंगल,
भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल !
तुमुल जयध्वनि करो महात्मा गान्धी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय !
राष्ट्र-नायकों का हे, पुन: करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन !
स्वर्ण-शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,
बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवगण!
लोह-संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित सम्पन्न क्षुधातुर नग्न-भग्न जन!
मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!
मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!

नव स्वतंत्र भारत, हो जग-हित ज्योति जागरण,
नव प्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण !
नव जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव मन में!
रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न समापन,
शान्ति प्रीति सुख का भू-स्वर्ग उठे सुर मोहन!
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
विकसित आज हुई सीमाएँ जग-जीवन की!
धन्य आज का स्वर्ण दिवस, नव लोक-जागरण!
नव संस्कृति आलोक करे, जन भारत वितरण!
नव-जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन !

7/17/2007

पर्वतारोही : रामधारी सिंह दिनकर


मैं पर्वतारोही हूँ।
शिखर अभी दूर है।
और मेरी साँस फूलनें लगी है।

मुड़ कर देखता हूँ
कि मैनें जो निशान बनाये थे,
वे हैं या नहीं।
मैंने जो बीज गिराये थे,
उनका क्या हुआ?

किसान बीजों को मिट्टी में गाड़ कर
घर जा कर सुख से सोता है,

इस आशा में
कि वे उगेंगे
और पौधे लहरायेंगे ।
उनमें जब दानें भरेंगे,
पक्षी उत्सव मनानें को आयेंगे।

लेकिन कवि की किस्मत
इतनी अच्छी नहीं होती।
वह अपनें भविष्य को
आप नहीं पहचानता।

हृदय के दानें तो उसनें
बिखेर दिये हैं,
मगर फसल उगेगी या नहीं
यह रहस्य वह नहीं जानता ।

7/11/2007

ताजमहल की छाया में : अज्ञेय

मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ,
या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ ।
साधन इतनें नहीं कि पत्थर के प्रसाद खड़े कर-
तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ।

पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे
या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ?
हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का-
औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे?

हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये,
देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये
व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी:
क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये!

मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी,
पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी!
जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का
प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !

रचनाकाल/स्थल : २० दिसम्बर १९३५, आगरा

7/10/2007

करघा : रामधारी सिंह ’दिनकर’


हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं
दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है।
हर ज़िन्दगी किसी न किसी
ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है ।

ज़िन्दगी ज़िन्दगी से
इतनी जगहों पर मिलती है
कि हम कुछ समझ नहीं पाते
और कह बैठते हैं यह भारी झमेला है।
संसार संसार नहीं,
बेवकूफ़ियों का मेला है।

हर ज़िन्दगी एक सूत है
और दुनिया उलझे सूतों का जाल है।
इस उलझन का सुलझाना
हमारे लिये मुहाल है ।

मगर जो बुनकर करघे पर बैठा है,
वह हर सूत की किस्मत को
पहचानता है।
सूत के टेढ़े या सीधे चलने का
क्या रहस्य है,
बुनकर इसे खूब जानता है।


’हारे को हरिनाम’ से

6/11/2007

क्यों कि तुम हो : अज्ञेय

मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है
तारागण से एक शान्ति-सी छन-छन कर आती है
क्यों कि तुम हो।

फुटकी सी लहरिल उड़ान
शाश्वत के मूक गान की स्वर लिपि-सी संज्ञा के पट पर अँक जाती है
जुगनू की छोटी-सी द्युति में नये अर्थ की
अनपहचाने अभिप्राय सी किरण चमक जाती है
क्यों कि तुम हो।

जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है
आस्था का आप्लवन एक संशय के कल्मश धो जाता है
क्यों कि तुम हो।

कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पन्दन मैं भरता हूँ
अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूँ
क्यो कि तुम हो।

तुम तुम हो;मैं -क्या हूँ ?
ऊँची उड़ान, छोटे कृतित्व की लम्बी परम्परा हूँ,
पर कवि हूँ, स्रष्टा, दृष्टा, दाता :
जो पाता हूँ अपने को भठ्टी कर उसे गलाता-चमकाता हूँ

अपने को मट्टी कर उस का अंकुर पनपाता हूँ
पुष्प-सा सलिल-सा,प्रसाद-सा,कंचन-सा,शस्य-सा,पुण्य-सा,
अनिर्वच आह्लाद-सा लुटाता हूँ
क्यों कि तुम हो।


सृजन स्थल: दिल्ली-इलाहाबाद ( रेल में )
१८ अक्टूबर १९५८

5/25/2007

नव दृष्टि : सुमित्रानंदन पंत,( जन्म-२० मई,१९००)

खुल गये छन्द के बन्ध ,
प्रास के रजत पाश,
अब गीत मुक्त,
औ’ युग-वाणी बहती अयास !
बन गये कलात्मक भाव
जगत के रूप-नाम,

जीवन-संघर्षण देता सुख,
लगता ललाम!

सुन्दर, शिव,सत्य
कला के कल्पित माप-मान
बन गये स्थूल,
जग-जीवन से हो एकप्राण!
मानव स्वभाव ही
बन मानव-आदर्श सुकर
करता अपूर्ण को पूर्ण,
असुन्दर को सुन्दर !

"संयोजिता" से

आशी: - त्रिलोचन

पृथ्वी से
दूब की कलाएँ लो
चार

ऊषा से
हल्दिया तिलक

लो

और
अपनें हाथों में
अक्षत लो

पृथ्वी आकाश
जहाँ कहीं
तुम्हें जाना हो
बढ़ो
बढ़ो

('अरधान' से )
त्रिलोचन पर एक लेख

4/20/2007

कविता के द्वारा हस्त्तक्षेप : धूमिल

जब मै अपनें ही जैसे किसी आदमी से बात करता हूँ,
साक्षर है पर समझदार नहीं है । समझ है लेकिन
साहस नहीं है । वह अपने खिलाफ चलाने वाली
साजिश का विरोध खुल कर नही कर पाता ।
और इस कमजोरी को मैं जानता हूँ । लेकिन इसलिये
वह आम मामूली आदमी मेरा साधन नहीं है
यह मेरे अनुभव का सहभागी है, बनता है ।

जब मैं उसे भूख और नफ़रत और प्यार और ज़िंदगी
का मतलब समझाता हूँ-और मुझे कविता में
आसानी होती है-जब मैं ठहरे हुए को हरकत
में लाता हूँ -एक उदासी टूटती है,ठंडापन ख़त्म
होता है और वह ज़िंदगी के ताप से भर जाता है ।

मेरे शब्द उसे ज़िंदगी के कई-स्तरों पर खुद को
पुनरीक्षण का अवसर देते हैं, वह बीते हुये वर्षों
को एक- एक कर खोलता है ।

वर्तमान को और पारदर्शी पाता है उसके आर-पार
देखता है । और इस तरह अकेला आदमी भी
अनेक कालों और अनेक संबंधों मे एक समूह
मे बदल जाता है । मेरी कविता इस तरह अकेले को
सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता ।

इस तरह कविता में शब्दों के ज़रिये एक कवि
अपने वर्ग के आदमी को समूह की साहसिकता से
भरता है जब कि शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु को
समूह से विच्छिन्न करता है । यह ध्यान
रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण
अलग-अलग है शब्द अपने वर्ग-मित्रों में कारगर
होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर ।

(" कल सुनना मुझे' से )


4/03/2007

अकेले किस के प्राण : शमशेरबहादुर सिंह

(१)
अरुण प्रान्त में सुन्दर उज्ज्वल
जिस का सूना निश्चल तारा,
एकाकीपन जिस का संबल,
अमा दिवस ! वह किस का प्यारा ?

(२)
आज अकेले किस के प्राण ?
मेरे कवि के! मेरे कवि के !
जिस नें जीवन के सम्मान
फूँक दिये आँगन में छवि के !

( 'दूसरा सप्तक'से)