12/28/2005

हंस के समान दिन उड़ कर चला गया: त्रिलोचन

हंस के समान दिन उड़ कर चला गया
अभी उड़ कर चला गया

पृथ्वी आकाश
डूबे स्वर्ण की तरंगों में
गूँजे स्वर
ध्यान-हरण मन की उमंगों में
बन्दी कर मन को वह खग चला गया
अभी उड़ कर चला गया

कोयल सी श्यामा सी
रात निविड़ मौन पास
आयी जैसे बँध कर
बिखर रहा शिशिर-श्वास
प्रिय संगी मन का वह खग चला गया
अभी उड़ कर चला गया

['धरती' से ]

11/29/2005

जो कहा नही गया : अज्ञेय

है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया ।

उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई,
सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,
बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।
अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति :
मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई-
फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।
पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।

निर्विकार मरु तक को सींचा है
तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है

तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,
इसी अहंकार के मारे
अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ
उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया ।
इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया ।

शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं
पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
शायद केवल इतना ही : जो दर्द है
वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया।
तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया ।

(रचनाकाल / स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३)

11/28/2005

चार और पंक्तियाँ : प्रभाकर माचवे

जब दिल ने दिल को जान लिया
जब अपना-सा सब मान लिया
तब ग़ैर-बिराना कौन बचा
यदि बचा सिर्फ़ तो मौन बचा !

( तार-सप्तक, से)

11/27/2005

मौन : सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

बैठ लें कुछ देर,
आओ,एक पथ के पथिक-से
प्रिय, अंत और अनन्त के,
तम-गहन-जीवन घेर।
मौन मधु हो जाए
भाषा मूकता की आड़ में,
मन सरलता की बाढ़ में,
जल-बिन्दु सा बह जाए।
सरल अति स्वच्छ्न्द
जीवन, प्रात के लघुपात से,
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप,निर्द्वन्द ।

( 'निराला संचयिता' से )

11/13/2005

मुझे क़दम क़दम पर: मुक्तिबोध( नवंबर १३,१९१७--सितंबर ११, १९६४)

मुझे क़दम-क़दम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहें फैलाये !!

एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ;
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तज़ुर्बे और अपने सपने.....
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाये !!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है;
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीड़ा है,
पलभर मैं सबमें से गुज़रना चाहता हूँ,
प्रत्येक उर में से तिर आना चाह्ता हूँ,
इस तरह ख़ुद ही को दिये-दिये फिरता हूँ
अजीब है ज़िन्दगी !!
बेवकूफ़ बनने के ख़ातिर ही
सब तरफ़ अपनें को लिये-लिये फिरता हूँ;
और यह देख-देख बड़ा मज़ा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ......
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है।
कि जगत....स्वायत्त हुआ जाता है।

कहानियाँ लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ ज़रा खड़े होकर
बातें कुछ करता हूँ..
...उपन्यास मिल जाते ।

दु:ख की कथाएँ, तरह-तरह की शिकायतें
अहंकार-विश्लेषण,चारित्रिक आख्यान,
ज़माने के जानदार सूरे व आयतें
सुननें को मिलती हैं !

कविताएँ मुसकरा लाग-डाँट करती हैं
प्यार बात करती हैं ।
मरनें और जीनें की जलती हुई सीढ़ियाँ
श्रद्धाएँ चढ़ती हैं !!

घबराये प्रतीक और मुसकाते रूप-चित्र
लेकर मैं घर पर जब लौटता...
उपमाएँ, द्वार पर आते ही कहती हैं कि
सौ बरस और तुम्हें
जीना ही चाहिए ।

घर पर भी, पग-पग पर चौराहे मिलते हैं,
बाँहें फैलाये रोज़ मिलती हैं,सौ राहें,
शाखा-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं,
नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज़-रोज़ मिलते हैं...
और, मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के
लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वर‌‌‍न्‌ यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है,
और , वह ठीक चुनाव कर नहीं पाता है !!

11/09/2005

सहर्ष स्वीकारा है : गजानन माधव मुक्तिबोध

ज़िन्दगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है;
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
गरबीली ग़रीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़्ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए के पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है--
संवेदन तुम्हारा है !!

जाने क्या रिश्ता है,जाने क्या नाता है
जितना भी उँड़ेलता हूँ,भर भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!

सचमुच मुझे दण्ड दो कि भूलूँ मैं भूलूँ मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवी अंधकार-अमावस्या
शरीर पर,चेहरे पर, अंतर में पा लूँ मैं
झेलूँ मै, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।
ममता के बादल की मँडराती कोमलता--
भीतर पिराती है
कमज़ोर और अक्षम अब हो गयी है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है

बहलाती सहलाती आत्मीयता बरदाश्त नही होती है !!!

सचमुच मुझे दण्ड दो के हो जाऊँ
पाताली अँधेरे की गुहाओं में विवरों में
धुएँ के बाद्लों में
बिलकुल मैं लापता!!
लापता कि वहाँ भी तो तुम्हारा ही सहारा है!!
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
या मेरा जो होता-सा लगता है, होता सा संभव है
सभी वह तुम्हारे ही कारण के कार्यों का घेरा है, कार्यों का वैभव है
अब तक तो ज़िन्दगी में जो कुछ था, जो कुछ है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है ।

11/01/2005

आ: धरती कितना देती है : सुमित्रानंदन पंत

मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।
सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये ।

मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक ,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर ।
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।

अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।

औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।

मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे
टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा ,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।

देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी -
जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।

निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले ,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से ,
नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है ।


तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है

यह धरती कितना देती है । धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर

रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने है
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है
इसमे मानव ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले
मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।

10/26/2005

चार पंक्तियाँ : प्रभाकर माचवे

निर्जन की जिज्ञासा है निर्झर की तुतली बोली में
विटपों के हैं प्रश्नचिन्ह विहगों की वन्य ठिठोली में
इंगित हैं' कुछ और पूछ लूँ' इन्द्रचाप की रोली में
संशय के दो कण लाया हूँ आज ज्ञान की झोली में ।

10/25/2005

समर्पण : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

घास की एक पत्ती के सम्मुख
मैं झुक गया
और मैंने पाया कि
मैं आकाश छू रहा हूँ ।

10/20/2005

लज्जा ( कामायनी से) : जयशंकर प्रसाद

"हाँ ठीक , परन्तु बतलाओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है ?
इस निविड़ निशा मे संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है ?

यह आज समझ तो पायी हूँ
मै दुर्बलता मे नारी हूँ ,
अवयव की सुन्दर कोमलता
लेकर मै सबसे हारी हूँ ,

पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपने ही होता जाता है
घनाश्याम खंड सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है ?

सर्वस्व-समर्पण करने को
विश्वास-महा-तरु-छाया में ,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में ?

छाया पथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु लीला ,
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीह्ता श्रम-शीला ?

निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में
चाह्ती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में ।

नारी जीवन का चित्र यही
क्या ? विकल रंग भर देती हो ,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो ।

रुकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच विचार न कर सकती ,
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती ।

मै जभी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ ।

इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता हैं,
मै दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता हैं ।"

कया कहती हो ठहरो नारी !
संकल्प-अश्रु-जल-से अपने--
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने से सपने ।

नारी! तुम केवल श्रद्दा हो
विश्वास रजत नग पग तल में ;
पियूष-स्त्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में ।

देवों की विजय , दानवों की
हारों का होता युद्ध रहा ,
संघर्ष सदा उर अंतर में
जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा ।

आँसू से भीगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा--
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह सन्धि पत्र लिखना होगा ।

10/13/2005

आज फिर शुरू हुआ : रघुवीर सहाय

आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा

जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया

आज एक छोटी-सी बच्ची आयी,किलक मेरे कन्धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया

आज फिर जीवन शुरू हुआ।

10/12/2005

जड़ें : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

जड़ें कितनी गहरीं हैं
आँकोगी कैसे ?
फूल से ?
फल से?
छाया से?
उसका पता तो इसी से चलेगा
आकाश की कितनी
ऊँचाई हमने नापी है,
धरती पर कितनी दूर तक
बाँहें पसारी हैं।

जलहीन,सूखी,पथरीली,
ज़मीन पर खड़ा रहकर भी
जो हरा है
उसी की जड़ें गहरी हैं
वही सर्वाधिक प्यार से भरा है।

10/10/2005

दो बूँदें : जयशंकर प्रसाद

शरद का सुंदर नीलाकाश
निशा निखरी, था निर्मल हास
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
सुधा सरिता लेती उच्छ्वास
पुलक कर लगी देखने धरा
प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद
सु शीतलकारी शशि आया
सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !

10/06/2005

लहर : जयशंकर प्रसाद

वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?
जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे।

सुरधनु रंजित नवजलधर से-
भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे

प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे

चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे ।

10/04/2005

वर दे : सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

निराला जी की लिखी कविता 'वर दे' के कुछ अंश :

वर दे वीणावादिनी वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे ।
नव गति/नव लय/ताल छंद नव/
नवल कण्ठ/ नव जलद मन्द रव/
नव नभ के/ नव नवल वृन्द को/
नव पर/ नव स्वर /दे ।
वीणा वादिनि वर दे ।

9/30/2005

सुरभित रचना में सम्मिलित है कुछ प्रिय कविताएं , कुछ पसंदीदा ख्यालात ।