10/20/2005

लज्जा ( कामायनी से) : जयशंकर प्रसाद

"हाँ ठीक , परन्तु बतलाओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है ?
इस निविड़ निशा मे संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है ?

यह आज समझ तो पायी हूँ
मै दुर्बलता मे नारी हूँ ,
अवयव की सुन्दर कोमलता
लेकर मै सबसे हारी हूँ ,

पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपने ही होता जाता है
घनाश्याम खंड सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है ?

सर्वस्व-समर्पण करने को
विश्वास-महा-तरु-छाया में ,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में ?

छाया पथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु लीला ,
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीह्ता श्रम-शीला ?

निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में
चाह्ती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में ।

नारी जीवन का चित्र यही
क्या ? विकल रंग भर देती हो ,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो ।

रुकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच विचार न कर सकती ,
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती ।

मै जभी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ ।

इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता हैं,
मै दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता हैं ।"

कया कहती हो ठहरो नारी !
संकल्प-अश्रु-जल-से अपने--
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने से सपने ।

नारी! तुम केवल श्रद्दा हो
विश्वास रजत नग पग तल में ;
पियूष-स्त्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में ।

देवों की विजय , दानवों की
हारों का होता युद्ध रहा ,
संघर्ष सदा उर अंतर में
जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा ।

आँसू से भीगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा--
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह सन्धि पत्र लिखना होगा ।