उदास वक़्तों में भी, जुगनू लौ करते हैं
सितारे टिमटिमाते हैं
और कवि कविता लिखते हैं
उदास वक़्तों में भी
घास के तृण उगते हैं
पक्षी गाते और फूल खिलते हैं
उदास समय में भी
लोग सपने लेते हैं
दरिया बहते हैं और सूर्य उदय होता है
’ओ पंखुरी’ से
1/15/2008
1/14/2008
शब्द रोशनी वाले : नवतेज भारती
जिस शब्द में से प्रकाश नही फूटता
उसको काग़ज़ पर मत रख
कोरा सफ़ेद काग़ज़
काले अक्षरों से ज़्यादा मोल का होता है.
’पंजाबी की श्रेष्ट प्रेम-कविताएं’ से
उसको काग़ज़ पर मत रख
कोरा सफ़ेद काग़ज़
काले अक्षरों से ज़्यादा मोल का होता है.
’पंजाबी की श्रेष्ट प्रेम-कविताएं’ से
जो चलते हैं : नवतेज भारती
यदि मैं चलता चलता रुक जाऊं
तब मेरे पांव ,उनको दे देना, जो चलते हैं
आंखे उनको, जो देखते हैं
दिल उनको, जो प्यार करते हैं.
’पंजाबी की श्रेष्ट प्रेम-कविताएं’ से
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जो चलते हैं,
नवतेज भारती
1/08/2008
एक भावना : हरिनारायण व्यास
पुरानी मान्यताओं, पुराने शब्दों, पुरानी कहावतों को नये अर्थ से विभूषित कर के कविता ,में प्रयोग करने से पाठक की अनुभूतियों को छूने में सहायता मिलती है।
हरिनारायण व्यास
**************
इस पुरानी ज़िन्दगी की जेल में
जन्म लेता है नया मन।
मुक्त नीलाकाश की लम्बी भुजाएँ
हैं समेटे कोटि युग से सूर्य, शशि, निहारिका के ज्योति-तन।
यह दुखी संसृति हमारी,
स्वप्न की सुन्दर पिटारी
भी इसी को बाहुओं में आत्म-विस्तृत, सुप्त निज में ही
सिमट लिपटी हुई है।
किन्तु मन ब्रहाण्ड इससे भी बडा़ है
जो कि जीवन कोठरी में जन्म लेता है नया बन
आज इस ब्रह्मान्ड में ही उठ रहा है
प्रेरणा का जन्म जीवन-भरा स्पन्दन-भरा
आषाढ़ का सुख-पूर्ण धन।
रुग्ण जन-जन,
युद्ध-पथ पर लड़खड़ाता हाँफता
हर चरण पर भीति से बिजली सरीखा काँपता
तोड़ने को आतुर हुआ यह शुद्र बन्धन
आँज कर पीले नयन में ज्योति का धुँधला सपन।
जल रही प्राचीनताएँ बाँध छाती पर मरण का एक क्षण
इस अँधेरे की पुरानी ओढ़नी को बेध कर
आ रही ऊपर नये युग की किरण।
( दूसरा सप्तक, से)
हरिनारायण व्यास
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इस पुरानी ज़िन्दगी की जेल में
जन्म लेता है नया मन।
मुक्त नीलाकाश की लम्बी भुजाएँ
हैं समेटे कोटि युग से सूर्य, शशि, निहारिका के ज्योति-तन।
यह दुखी संसृति हमारी,
स्वप्न की सुन्दर पिटारी
भी इसी को बाहुओं में आत्म-विस्तृत, सुप्त निज में ही
सिमट लिपटी हुई है।
किन्तु मन ब्रहाण्ड इससे भी बडा़ है
जो कि जीवन कोठरी में जन्म लेता है नया बन
आज इस ब्रह्मान्ड में ही उठ रहा है
प्रेरणा का जन्म जीवन-भरा स्पन्दन-भरा
आषाढ़ का सुख-पूर्ण धन।
रुग्ण जन-जन,
युद्ध-पथ पर लड़खड़ाता हाँफता
हर चरण पर भीति से बिजली सरीखा काँपता
तोड़ने को आतुर हुआ यह शुद्र बन्धन
आँज कर पीले नयन में ज्योति का धुँधला सपन।
जल रही प्राचीनताएँ बाँध छाती पर मरण का एक क्षण
इस अँधेरे की पुरानी ओढ़नी को बेध कर
आ रही ऊपर नये युग की किरण।
( दूसरा सप्तक, से)
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