11/13/2005

मुझे क़दम क़दम पर: मुक्तिबोध( नवंबर १३,१९१७--सितंबर ११, १९६४)

मुझे क़दम-क़दम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहें फैलाये !!

एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुज़रना चाहता हूँ;
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तज़ुर्बे और अपने सपने.....
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है,
मैं कुछ गहरे में उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाये !!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है;
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है,
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य पीड़ा है,
पलभर मैं सबमें से गुज़रना चाहता हूँ,
प्रत्येक उर में से तिर आना चाह्ता हूँ,
इस तरह ख़ुद ही को दिये-दिये फिरता हूँ
अजीब है ज़िन्दगी !!
बेवकूफ़ बनने के ख़ातिर ही
सब तरफ़ अपनें को लिये-लिये फिरता हूँ;
और यह देख-देख बड़ा मज़ा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ......
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है।
कि जगत....स्वायत्त हुआ जाता है।

कहानियाँ लेकर और
मुझको कुछ देकर ये चौराहे फैलते
जहाँ ज़रा खड़े होकर
बातें कुछ करता हूँ..
...उपन्यास मिल जाते ।

दु:ख की कथाएँ, तरह-तरह की शिकायतें
अहंकार-विश्लेषण,चारित्रिक आख्यान,
ज़माने के जानदार सूरे व आयतें
सुननें को मिलती हैं !

कविताएँ मुसकरा लाग-डाँट करती हैं
प्यार बात करती हैं ।
मरनें और जीनें की जलती हुई सीढ़ियाँ
श्रद्धाएँ चढ़ती हैं !!

घबराये प्रतीक और मुसकाते रूप-चित्र
लेकर मैं घर पर जब लौटता...
उपमाएँ, द्वार पर आते ही कहती हैं कि
सौ बरस और तुम्हें
जीना ही चाहिए ।

घर पर भी, पग-पग पर चौराहे मिलते हैं,
बाँहें फैलाये रोज़ मिलती हैं,सौ राहें,
शाखा-प्रशाखाएँ निकलती रहती हैं,
नव-नवीन रूप-दृश्यवाले सौ-सौ विषय
रोज़-रोज़ मिलते हैं...
और, मैं सोच रहा कि
जीवन में आज के
लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वर‌‌‍न्‌ यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है,
और , वह ठीक चुनाव कर नहीं पाता है !!