12/26/2007

रुबाई : शमशेरबहादुर सिंह

हम अपने ख़्याल को सनम समझे थे
अपने को ख़्याल से भी कम समझे थे
’होना था’- समझना न था कुछ भी ’शमशेर’
होना भी कहाँ था वो जो हम समझे थे।

’दूसरा सप्तक’ से