5/26/2006

कम्पनी बाग़ : कीर्ति चौधरी

लतरें हैं, ख़ुशबू है,पौधे हैं, फूल हैं।
ऊँचे दरख़्त कहीं, झाड़ कहीं ,शूल हैं।
लान में उगायी तरतीबवार घास है।
इधर-उधर बाक़ी सब मौसम उदास है।
आधी से ज़्यादा तो ज़मीन बेकार है।
उगे की सुरक्षा ही माली को भार है।
लोहे का फाटक है, फाटक पर बोर्ड है।
दृश्य कुछ यह पुराने माडल की फ़ोर्ड है।
भँवरों का, बुलबुल का, सौरभ का भाग है।
शहर में हमारे यही कम्पनी बाग़ है।

( 'तीसरा सप्तक' से)