निर्जन की जिज्ञासा है निर्झर की तुतली बोली में
विटपों के हैं प्रश्नचिन्ह विहगों की वन्य ठिठोली में
इंगित हैं' कुछ और पूछ लूँ' इन्द्रचाप की रोली में
संशय के दो कण लाया हूँ आज ज्ञान की झोली में ।
10/26/2005
10/25/2005
समर्पण : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
घास की एक पत्ती के सम्मुख
मैं झुक गया
और मैंने पाया कि
मैं आकाश छू रहा हूँ ।
मैं झुक गया
और मैंने पाया कि
मैं आकाश छू रहा हूँ ।
10/20/2005
लज्जा ( कामायनी से) : जयशंकर प्रसाद
"हाँ ठीक , परन्तु बतलाओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है ?
इस निविड़ निशा मे संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है ?
यह आज समझ तो पायी हूँ
मै दुर्बलता मे नारी हूँ ,
अवयव की सुन्दर कोमलता
लेकर मै सबसे हारी हूँ ,
पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपने ही होता जाता है
घनाश्याम खंड सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है ?
सर्वस्व-समर्पण करने को
विश्वास-महा-तरु-छाया में ,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में ?
छाया पथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु लीला ,
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीह्ता श्रम-शीला ?
निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में
चाह्ती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में ।
नारी जीवन का चित्र यही
क्या ? विकल रंग भर देती हो ,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो ।
रुकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच विचार न कर सकती ,
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती ।
मै जभी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ ।
इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता हैं,
मै दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता हैं ।"
कया कहती हो ठहरो नारी !
संकल्प-अश्रु-जल-से अपने--
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने से सपने ।
नारी! तुम केवल श्रद्दा हो
विश्वास रजत नग पग तल में ;
पियूष-स्त्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में ।
देवों की विजय , दानवों की
हारों का होता युद्ध रहा ,
संघर्ष सदा उर अंतर में
जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा ।
आँसू से भीगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा--
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह सन्धि पत्र लिखना होगा ।
मेरे जीवन का पथ क्या है ?
इस निविड़ निशा मे संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है ?
यह आज समझ तो पायी हूँ
मै दुर्बलता मे नारी हूँ ,
अवयव की सुन्दर कोमलता
लेकर मै सबसे हारी हूँ ,
पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपने ही होता जाता है
घनाश्याम खंड सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है ?
सर्वस्व-समर्पण करने को
विश्वास-महा-तरु-छाया में ,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में ?
छाया पथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु लीला ,
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीह्ता श्रम-शीला ?
निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में
चाह्ती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में ।
नारी जीवन का चित्र यही
क्या ? विकल रंग भर देती हो ,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो ।
रुकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच विचार न कर सकती ,
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती ।
मै जभी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ ।
इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता हैं,
मै दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता हैं ।"
कया कहती हो ठहरो नारी !
संकल्प-अश्रु-जल-से अपने--
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने से सपने ।
नारी! तुम केवल श्रद्दा हो
विश्वास रजत नग पग तल में ;
पियूष-स्त्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में ।
देवों की विजय , दानवों की
हारों का होता युद्ध रहा ,
संघर्ष सदा उर अंतर में
जीवित रह नित्य-विरुद्ध रहा ।
आँसू से भीगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा--
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह सन्धि पत्र लिखना होगा ।
10/13/2005
आज फिर शुरू हुआ : रघुवीर सहाय
आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी-सी बच्ची आयी,किलक मेरे कन्धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया
आज फिर जीवन शुरू हुआ।
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी-सी बच्ची आयी,किलक मेरे कन्धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया
आज फिर जीवन शुरू हुआ।
10/12/2005
जड़ें : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
जड़ें कितनी गहरीं हैं
आँकोगी कैसे ?
फूल से ?
फल से?
छाया से?
उसका पता तो इसी से चलेगा
आकाश की कितनी
ऊँचाई हमने नापी है,
धरती पर कितनी दूर तक
बाँहें पसारी हैं।
जलहीन,सूखी,पथरीली,
ज़मीन पर खड़ा रहकर भी
जो हरा है
उसी की जड़ें गहरी हैं
वही सर्वाधिक प्यार से भरा है।
आँकोगी कैसे ?
फूल से ?
फल से?
छाया से?
उसका पता तो इसी से चलेगा
आकाश की कितनी
ऊँचाई हमने नापी है,
धरती पर कितनी दूर तक
बाँहें पसारी हैं।
जलहीन,सूखी,पथरीली,
ज़मीन पर खड़ा रहकर भी
जो हरा है
उसी की जड़ें गहरी हैं
वही सर्वाधिक प्यार से भरा है।
10/10/2005
दो बूँदें : जयशंकर प्रसाद
शरद का सुंदर नीलाकाश
निशा निखरी, था निर्मल हास
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
सुधा सरिता लेती उच्छ्वास
पुलक कर लगी देखने धरा
प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद
सु शीतलकारी शशि आया
सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !
निशा निखरी, था निर्मल हास
बह रही छाया पथ में स्वच्छ
सुधा सरिता लेती उच्छ्वास
पुलक कर लगी देखने धरा
प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद
सु शीतलकारी शशि आया
सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !
10/06/2005
लहर : जयशंकर प्रसाद
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?
जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे।
सुरधनु रंजित नवजलधर से-
भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे
प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे
चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे ।
जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे।
सुरधनु रंजित नवजलधर से-
भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे
प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे
चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे ।
10/04/2005
वर दे : सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
निराला जी की लिखी कविता 'वर दे' के कुछ अंश :
वर दे वीणावादिनी वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे ।
नव गति/नव लय/ताल छंद नव/
नवल कण्ठ/ नव जलद मन्द रव/
नव नभ के/ नव नवल वृन्द को/
नव पर/ नव स्वर /दे ।
वीणा वादिनि वर दे ।
वर दे वीणावादिनी वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे।
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे ।
नव गति/नव लय/ताल छंद नव/
नवल कण्ठ/ नव जलद मन्द रव/
नव नभ के/ नव नवल वृन्द को/
नव पर/ नव स्वर /दे ।
वीणा वादिनि वर दे ।
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